(
आयुध के लिए - जो एकाएक इतना बड़ा हो गया है कि मेरे लिए एक तरल दिलासा और
बड़ा संबल बन गया है।)
प्रिय बेटी, एकाएक तुम्हें मेरा पत्र पाकर थोड़ा विस्मय होगा। इंटरनेट और
मोबाइल के इस युग में पत्र कौन लिखता होगा? जाने कितने दिन हो गए तुम्हें देखा
नहीं। ठीक से और करीब बैठाकर मन भर कर बातें किए तो बरसों हो गए। उस दिन जब
तुम्हारे जन्मदिन पर मैंने ऑनलाइन शापिंग करके तुम्हें एक टेडी-बीयर भेजा तो
तुम्हारी प्रतिक्रिया से मैं चकित रह गया। तुमने कहा कि, - 'पापा! मैं अब बड़ी
हो गई हूँ। पी.जी. करके नौकरी कर रही हूँ।
तब मुझे लगा कि क्या तुम सचमुच बड़ी हो गई हो। आठवीं क्लास तक तुम हमारे साथ
यहाँ घर में रही। फिर पढ़ने के लिए शहर छोड़ दिया। फिर नौकरी के लिए विदेश चली
गई। मैंने तो ठीक से तुम्हारा बचपन भी नहीं देखा। एक पिता का दुर्भाग्य इससे
बड़ा क्या होगा कि उसने अपनी बेटी को बड़ा होते नहीं देखा है और मैं आज भी
तुम्हारे लिए टेडी-बीयर खरीदता हूँ। मेरे लिए समय वहीं रुका हुआ है। जब तुम
छोटी-सी थी और पढ़ने के लिए दूसरे शहर चली गई। दूर बेहद दूर। कभी-कभी स्काइप पर
तुम्हें देखता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे तुम कहीं दूर किसी अजनबी ग्रह से बोल
रही हो। तुम्हें देखना भला लगता है लेकिन पास से छूकर, बैठकर बातें करना जैसे
बहुत कठिन काम हो गया है।
कुछ चीजें समय के ऐसे मोहक और अनिवार्य जाल में फँसती है कि तुम्हारा जाना भी
जरूरी था ओर तुम्हारे से अलग होने का दुख एक दूसरी अनिवार्यता है। हर व्यक्ति
के जीवन में एक अतीत है। ऐसे बदनसीब तो गिने-चुने होंगे जिनके पास अतीत की
स्मृतियाँ मिट चुकी होंगी। मेरे पास यह एक अजीब-सा अजनबी समय है जिसमें
स्मृतियों का सुख भी और दुख भी है। कभी-कभी तो अतीत की वह सुखद स्मृतियाँ ही
तकलीफ देती हैं।
सफलता, सुख-सुविधाएँ और संपन्नता की किसी अनाम जगह के लिए जिस दौड़ में तुम
शामिल हो गई हो, बेटी वह जगह कहीं नहीं है। इसे कभी तुम खुद समझ सको तो ठीक
वरना मेरे लिये तो समझाना भी समय ने कठिन कर दिया है।
मैं अपने मन को कभी इस धिक्कार के साथ दिलासा देता हूँ कि काश मैंने तुम्हें
बाहर पढ़ने न भेजा होता लेकिन मैं यह भी जानता हूँ कि यह निहायत स्वार्थी और
निरर्थक दिलासा है। समय का क्रूर लावा हर शहर की हर गली में दाखिल होगा और सब
कुछ स्वाहा कर देगा। एक दुखों से भरी राख का ढेर। जिसे टटोलने पर छोटे-बड़े
दुखों के कंकर-पत्थर और कोयले के टुकड़े मिलेंगे। इतिहास पर कालिख पोतने के लिए
राख होगी।
फेसबुक पर सैकड़ों मित्र हैं लेकिन स्थिति यह है कि रिश्ते इतने औपचारिक बनते
जा रहे हैं कि पड़ोसी से अकेलापन बाँटना उसके समय को नष्ट करने में शामिल हो
गया है। पास पड़ोस में मुलाकात होती हैं, बातें होती हैं लेकिन मॉर्निंगवॉक पर
घूमने आए कुछ देर के साथियों जैसे।
बेटी, तुम सेलफोन के मैसेजेस में हो, कंप्यूटर के मेलबॉक्स में हो, तस्वीरों
में हो लेकिन साथ नहीं हो। कभी-कभी दुख होता है कि तुम्हारा कोई छोटा या बड़ा
भाई या बहन नहीं है गर ऐसा होता तो घर भरा-भरा लगता लेकिन फिर सोचता हूँ जैसे
तुम चली गई वैसे उसे भी तो जाना पड़ता।
इन दिनों यहाँ जाड़ा बहुत है। मैं और तुम्हारी माँ इस बड़े-से घर में अकेले हैं।
लगभग नियमित घटिया हिंदी धारावाहिकों को बहुत रुचि और मनोयोग से देखते हैं और
घोर भावुकता के साथ उस पर बहस भी करते हैं। कभी-कभी पुराने और घिसे हुए लतीफे
सुनाकर एक दूसरे को हँसाने की कोशिश करते हैं और इसी कोशिश में एक दूसरे के
लिए दिलासा खोजते हैं। हालाँकि साथ रहते हैं, साथ में खाते हैं। साथ में घूमने
जाते हैं। साथ में सोते हैं। साथ बैठकर बातें भी करते हैं लेकिन ऐसे जैसे किसी
रेल में यात्रा कर रहे दो अजनबी। हम दोनों के अतीत किसी बंद अँधेरे कमरे में
है। जिसे तुम्हारे होने की उपस्थिति का उजास ही खोज सकता है लेकिन यह मुमकिन
नहीं है। यही हमारे समय की त्रासदी है। तुम दूर हो लेकिन खुश हो क्योंकि
भरी-पूरी संपन्नता और सुख के संसार का रास्ता परिवार से दूर और अपने बचपन के
गुम हो जाने के तंग मुहाने से शुरू होता है। मैं तो महज इसलिए खुश हूँ कि तुम
खुश हो। बहुत सोचने-विचारने के बाद भी मैं खुशी का कोई दूसरा कारण नहीं खोज
पाया।
मैं और तुम्हारी माँ घर में अकेले हैं। जबकि पूरा घर तुम्हारी यादों से भरा
है। जो समय तुम्हारे साथ जिया वह भी और तुम्हारे साथ समय बिताने की इच्छा थी
उस दुख के भी हजारों कोने इस घर में हैं।
मैं और तुम्हारी माँ एक दूसरे से बहुत प्रेम करते हैं लेकिन पूरा घर तुम्हारी
यादों और अनुपस्थिति के दुख से इतना भरा है कि हम दोनों कभी-कभी या आजकल रोज
उसी में फँसे या धँसे रह जाते हैं।
तुम्हारे दादा की मृत्यु की सूचना तो मैंने तुम्हें उसी दिन दे दी थी। पहले
तुम्हारा मेल फिर फोन भी आ गया था। तुम्हें कंपनी से छुट्टी नहीं मिल पा रही
है और शायद कुछ वीजा की समस्या बता रही थी। तुम्हारे कहने पर मैंने अपने पिता
की अस्थियों की राख एक तांबे के पात्र में रखकर अलमारी के एक सुरक्षित कोने
में रख दी है। हालाँकि तुम्हारा आग्रह था कि उस पात्र को बैंक के लॉकर में रख
दो लेकिन भरोसा रखो, वह पात्र घर में भी उतना ही सुरक्षित रहेगा। अस्थियाँ तो
मैं भी नर्मदा में जाकर छोड़कर आ सकता था लेकिन तुम्हारी जिद है कि ऐसा
तुम्हारे आने पर, तुम्हारी उपस्थिति में किया जाए। तुम्हारी विवशता से उपजे इस
अपराध-बोध को मैं समझ रहा हूँ।
शायद तुम अपनी माँ को बता रही थी कि कंपनी के जी.एम. ने कहा कि शादी होती तो
संभवतः छुट्टी मिल भी जाती लेकिन कंपनी का कहना है कि मृत्यु हो जाने के बाद
जाने से क्या मतलब? जो चला गया उसे तुम्हारी उपस्थिति या अनुपस्थिति से क्या
फर्क पड़ता है? मार्च में तुम्हारी कंपनी में एन्यूअल फंक्शन है। तुमने यह भी
बताया कि कंपनी मार्च तक टारगेट से ज्यादा एचीव करेगी इसलिए जाहिर है कि एक
बड़ा बोनस, तरक्की और कॉकटेल पार्टी रहेगी। इस सब बातों के शायद कोई अर्थ हो
लेकिन मैं तो नही समझ पाया। तुम्हारे दादा गाँव में किसान थे। हैसियत होने के
बावजूद कभी घर में फ्रीज नहीं खरीदा। टी.वी., गैसचूल्हा, ए.सी. और यहाँ तक कि
सायकल तक नहीं खरीदी। उनका कहना था कि मेरे पुरखों का और मेरा भी लगभग पूरा
जीवन इन सबके बगैर सुख से और बगैर किसी असुविधा के अहसास के साथ गुजरा।
तुम्हारे दादा इन सबको गैरजरूरी समझते थे और पूरी उम्र एक सहज जीवन जीने के
तर्क को बड़े प्रमाण की तरह हमें सौंपकर चले गए। वे कहते थे, इच्छाओं को छोटी
रखो उनको जरूरतें मत बनने दो। अपने जीवन में एक काम उन्होंने बड़ा किया। उनकी
इच्छाएँ गाँव में स्कूल खोलने की थी। गाँव में शहर जाती पगडंडी को सड़क बनाने
की थी। फसलों की अच्छी कीमतें मिलने लग जाए। उपज और खरीददार के बीच के दलाल
खत्म हो जाए। ऐसी बहुत सी इच्छाएँ थीं जो लगभग सारी उनके साथ ही चली गईं।
छोटी-छोटी इच्छाओं के कई अदृश्य खेत बो रखे थे जो धीरे धीरे उजड़ते चले गए और
बाजार के खरीददारों के लिए एक लुभावनी बंजर जमीन बची रह गई।
गाँव में फूफाजी के खेत भी उजाड़ पड़े हैं। फूफाजी ने पिछले हफ्ते आत्महत्या कर
ली। उनका कहना था कि खाद-बीज और दवाइयों के छिड़काव पर जो खर्च हुआ फसल से आय
उससे भी आधी मिली। कर्ज हो गया था। वे कहते थे कि बाजार में गेहूँ या दूसरा
कोई अन्न खरीदने जाओ तो महँगा मिलता है बेचने जाओ तो कौड़ियों के मोल खरीदते
हैं। संभवतः तुम किसान और उसकी उपज के बड़े हिस्से को हड़पने के इस द्वंद्व और
षड्यंत्र को नहीं समझ पाओगी। खैर छोड़ो।
नेता, अफसर, अभिनेता से लेकर उद्योगपति तक के चरित्र का पैमाना ही बदल गया है।
जेल जाकर लौटने वाले भी सम्मानित होने लगे है। धर्म एक बड़े बाजार में बदल गया
है। चार साधुओं को जेल होती है तो चालीस नई भाषा, नई भंगिमाओं के साथ आ जाते
हैं। अब तो यह देखा जाने लगा कि व्यक्ति साधु किस ब्रांड के कपड़े पहनता है।
किस ब्रांड के जूते या खड़ाऊँ पहनता है। किस ब्रांड की शराब या स्त्री का
इस्तेमाल करता है। किस गाड़ी से नीचे उतरता है। यहाँ तक कि किस ब्रांड का जीवन
जीता है। कितने बड़े पंडाल में भाषण या प्रवचन देता है। निराभिमानी बनके और
माया का मोह छोड़ने के प्रवचन देने वालों के आलीशान पैलेस हैं जो कि बाजार की
भाषा में आश्रम कहलाते हैं और जहाँ से करोड़ों की संपत्ति बरामद होती है। लाचार
और धर्म के नाम पर आश्रम में जबरन रखी गई स्त्रियों के साथ बलात्कार के
किस्सों की दुर्गन्ध भी बरामद होने लगी है। दिलचस्प बात तो यह है कि धर्म के
ऐसे धतकरम को तो तुम्हारी पीढ़ी फिर भी समझने लगी है लेकिन दुर्भाग्य यह है कि
इसमें हमारी पीढ़ी गले तक धँसी है। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि इन साधुओं से
ज्यादा बेहतर प्रवचन तो मैं दे सकता हूँ। मैं यदि लेखक नहीं बनता या न बना
रहना चाहूँ तो एक बेहतर दुष्ट और आधुनिक साधु बन सकता हूँ। क्या करना है?
थोड़ा-सा छल, ढेर सारा फरेब, टुच्चई, झूठ और चरित्रहीनता का एक जखीरा ही तो
चाहिए, जो कहीं खरीदने भी नहीं जाना पड़ेगा लेकिन क्या करें? जो एक बार लेखक हो
जाता है वह फिर जीवन भर लेखक ही बने रहना चाहता है। सब कुछ वन-वे ट्रैफिक की
तरह है। लौटने का कोई रास्ता नहीं है क्योंकि लुभावनी इच्छाओं की हत्या करके
ही तो व्यक्ति लेखक बनता है और फिर से लौटने के लिए एक लेखक की हत्या करना
बहुत कठिन काम है। जो ऐसा करते भी हैं, दोनों जगह नाकाम रहते हैं। पता नहीं
लिखते-लिखते कहाँ भटक गया और कैसे बहक गया। रिश्तों का अकेलापन ऐसी ही भटकाव
में ले जाता है। मैं अकेलेपन से नहीं डरता। मैं अकेलेपन के अँधेरे से डरता
हूँ। अकेलेपन में तो स्मृतियाँ भी सहारा बन जाती हैं लेकिन अकेलेपन के अँधेरे
में कुछ भी नहीं होता है। होता है तो बस स्मृतियों को बचाने के लिए अकेलेपन के
अँधेरे में कुछ भी नहीं होने के अहसास से एक घबराहट भरा संघर्ष। खैर...
तुमने मुझे अंग्रेजी का एक उपन्यास भेजा था। मैंने उसे जैसे-तैसे पढ़ लिया है
तुमने उस उपन्यास की ऐसी तारीफ की थी कि मुझे लगा था कि उपन्यास कोई प्रेमचंद,
गोर्की या दोस्तोयवस्की के स्तर की चीज होगा। शिव को केंद्र में रखकर लिखा वह
एक बेहद सतही, सामान्य और लगभग निरर्थक उपन्यास है। काश कि तुमने शिवपुराण पढ़ा
होता तो तुम्हें यह उपन्यास हीरे के सामने पत्थर का टुकड़ा लगता। मुझे यह बात
बहुत डरावनी लगती है कि तुमने इंडियन मायथॉलॉजी तो दूर की बात है इतिहास भी
नाम मात्र का पढ़ा है या घटिया उपन्यासों में या फिल्मों में देखा है। बेटी, वह
पीढ़ी बौद्धिक रूप से बहुत विपन्न होती है जिसके पास इतिहासबोध नहीं होता। जो
पौराणिक आख्यानों से अपरिचित होती है। इसे धार्मिक पोथियों की भाँति नहीं,
ज्ञान की संपत्ति की तरह पढ़ो, यह तुम्हारे लिए आसान भी होगा क्योंकि संपत्ति
शब्द से ही तुम्हारी पीढ़ी के भीतर एक बेचैनी पैदा करने वाला आकर्षण पैदा हो
जाता है। उलाहना नहीं दे रहा हूँ पर सच के शीशे के सामने खड़े होने का साहस अभी
संभवतः तुममें बचा होगा। एक दिक्कत तो यह है कि यहाँ भारत में जब दिन होता है
तब तुम्हारे अमेरिका में रात हो जाती है। हम लोग उजाले की तलाश या हासिल के
लिए लगभग विपरीत सिरों पर खड़े हैं। इसीलिए संभवतः हमारे उजालों का सच भी उतना
ही विरोधाभासी है।
बेटी, कभी-कभी मैं बहुत उदास, हताश और अपराधबोध से भरकर भयभीत हो जाता हूँ कि
हमारी पीढ़ी तुम्हारे लिए कैसा क्रूर और डरावना संसार छोड़कर जा रही है। सरेशाम
भीड़भरी सड़क पर बलात्कार, दिन दहाड़े डकैतियाँ, हत्याएँ, अपराध... निकम्मी, लोभी
पुलिस, अंधा न्याय और क्रूरता से भरी दुनिया। अर्थ यानी पैसे के रिश्ते पर
टिका बाजार से भरा पड़ा समय, जबकि उस संसार के निर्माण में हमारी पीढ़ी का कोई
दोष नहीं है सिर्फ एक मध्यवर्गीय लोभ, मिथ्या अभिमान कि संतान विदेश में है और
डॉलर में कमा रही है।
कैसा भयावह होगा वह समय जब तुम लोग भी उम्र की लगभग अंतिम सीढ़ियों पर खड़े
होंगे। जैसे आज हम लोग खड़े हैं। बोली तो दूर तुम लोगों के पास अपनी भाषा भी
नहीं होगी। किताबों से रिश्ता टूट जाएगा। टी.वी. और कंप्यूटर की जानकारियाँ ही
ज्ञान का विकल्प होंगी और प्रतिष्ठित भी। यह सोचकर बहुत अजीब लगता है कि मैं
भविष्य से भयभीत हूँ और तुम 'आज' को एंजॉय कर रही हो। 'आज में जीने' का नारा
बाजार ने दिया है और यह नारा तुम्हें वहीं तक जाने देता है जहाँ तक तुम्हारी
जेब खाली नहीं हो जाती है। बाजार तुम्हें इस बात की भनक भी नहीं लगने देता कि
वह तुम्हारे पास कितनी विकट चीजें और स्थितियाँ छोड़ रहा है। यह आने वाले
डरावने समय की आहट है। कितनी अजीब बात है कि तुम जिस समय को एन्जॉय कर रही हो
वह आने वाले समय की भयावहता है। तुम आने वाले भयावह समय के यज्ञ के आह्वान में
अपनी खुशी की आहुति दे रही हो।
लोभ में लिथड़ी हुई प्रतियोगिता और प्रतिद्वंद्वता की लपलपाती क्रूर
महत्वाकांक्षाएँ। रिश्तों और व्यापार के बीच की अमानवीयता को एक सहज और
अनिवार्य जीवन का हिस्सा प्रमाणित करने के निर्लज्ज तर्क। असहमत को देहाती
शत्रु और तुम लोगों के लिए दिन भर बल्कि रात तक चलने वाले हाड़-तोड़ श्रम के बाद
मिलने वाली लुभावनी सुविधाएँ जिनका लाभ लेने के लिए मन और देह के पास इच्छाएँ
मृत हो जाती है। इस समय में खिलौने पक्षियों की चहक को मोहक और आनंद देने वाली
आवाज बताने की चतुर तरकीबें हैं। तुम लोग समय के एक ऐसे उजाड़ में खड़े हो जहाँ
तुम्हें मोहक हरियाली के दृश्य नजर आ रहे हैं। इस समय ने तुम लोगों के भीतर से
आशीर्वाद और शुभकामनाओं की इच्छाएँ छीनकर खुद को दोष रहित भी प्रमाणित कर लिया
है। हमारे हाथ और मुख आशीर्वाद के लिए ललक से भरे हैं मने लेकिन अजीब से
सूनेपन और तकलीफदेह खालीपन के साथ हैं। दुआओं के हाथ आसमान छू रहे हैं लेकिन
तुम्हारे किसी के पास भी उत्सुकता या इच्छा भरी नजरें इस तरफ नहीं हैं। मेरे
पास अपने पूर्वजों के लिए असंख्य प्रार्थनाएँ हैं। तुम्हारे पास सिर्फ खुद की
खुशी के लिए अनेक भीषण प्रहार के वाद्य संगीत और कामुक कामनाओं और खुली देह की
पिपासू बिजलियों-सी चमकती मुद्राओं के जीवंत दृश्य हैं। हमारे पुराणों के समय
की निर्लज्ज और पातकी इच्छाएँ अब इस समय ने नए जीवन का अनिवार्य घोषित ही नहीं
किया उसे प्रमाणित भी कर दिया है। मैं कोई वह पुराण-पंथी पिता नहीं हूँ जो नए
या आधुनिक को घृणा से देखता है लेकिन नए और आधुनिकता के नाम पर ऐसा घातक बाजार
तैयार किया जाए जो अपनी विजय के लिए किसी भी अंतिम मारक हद तक जा सकता है,
उससे डरता हूँ ओर घृणा करता हूँ।
मुझे तुम्हारी पीढ़ी के प्रेम की घोषणाओं और सहमतियों से डर नहीं लगता बल्कि
बाजार द्वारा गढ़ी गई प्रेम की उन धारणाओं और परिभाषाओं से डर लगता है जो प्रेम
की जड़ों को संवेदना के सींचने के खिलाफ है। तुम लोगों के लिए प्रेम की अमरता
हास्यास्पद और निरर्थक है। कभी-कभी तो लगता है जैसे तुम लोगों के लिए प्रेम
तात्कालिकता में ही सुखद है। तुम लोगों का प्रेम किसी ठेले पर चाट खाकर भूल
जाने जैसी सामान्य घटना है।
मुझे तुम्हारी चिंता है। मैं प्रार्थना करता हूँ तुम्हारे बचपन में तुम्हारी
आँखों में हिरणी की आँखों जैसी मासूमियत थी, वह बची रहे। हमारी गली के कोने पर
रहने वाली अंधी विधवा दुलारी माई को तुम नियमित मंदिर ले जाती थी, उसके बीमार
होने पर उसे गाँव के डाक्टर के पास ले जाती थी, वह मनुष्यता, वह करुणा तुममें
बची रहे। कबरी गाय को जो बछड़ा हुआ था और तुम पूरे गाँव में सूचना देने के लिए
दौड़ती फिरी थी, वह अबोध खुशी बची रहे। ईश्वर की तरह पावन और निश्छल, वह बचपन
की तुम्हारी मोहक मुस्कान बची रहे। गहरी नींद के बीच रंगीन, तरल और सुखद सपने
बचे रहें। जिंदगी की आपाधापी में मैं सुख ओर संतोष के बीच का द्वंद्व और अर्थ
समझ नहीं पाया था, मेरी दुआ है कि तुम जल्दी समझ लो। लड़ाई-झगड़े, आंदोलन और
संघर्ष के अंतर जल्दी समझ लो। हमारे इस दुर्दान्त समय की क्रूरता, छल और
स्वार्थ की भाषा से तुम बची रहो। मेरे पास तुम्हें देने के लिए ऐेसे ही
संदिग्ध आशीर्वाद और प्रार्थनाएँ हैं।
जब तुम पहली बार बचपन में डगमगाती चली थी तो तीन कदम चलकर रुक गई थी जैसे वामन
ने तीन पग में नाप लिया समूचा ब्रह्मांड। तुम्हारे पास वह अलौकिक डगमगाती चाल
बची रहे। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे भीतर तुम बची रहो। सुरक्षित। पूरी उदारता,
करुणा और मानवीय मार्मिकता के साथ। पवित्रता तुम्हारे मन में बची रहे। हमारे
पूर्वजों के द्वारा दिए गए अनदेखे-अनसुने आशीर्वादों की निश्छलता तुममें बची
रहे।
कल सुबह जब मेरे सेलफोन पर तुम्हारा संदेश आया कि कंपनी जल्दी ही तुमको एक
फ्लैट भी देने वाली है जो सैलरी से किश्तें जमा कराने के बाद तुम्हारी
मिल्कियत भी संभव होगी और जिसके 'इंटीरिअर' पर तुम तीस लाख रुपए खर्च करने
वाली हो जो तुम्हारी सैलरी से किश्तों में काट लिए जाएगा। तुम्हें यह बहुत
मजेदार बात लग सकती है कि जिस समय मैं तुम्हारा संदेश पढ़ रहा था ठीक उसी समय
तुम्हारी माँ सब्जी वाले को डाँट रही थी कि बीस रुपए किलो की गोभी को वह
पच्चीस रुपए किलो में बेचकर हमें ठग रहा है। अंततः तुम्हारी माँ ने सब्जी वाले
से पाँच रुपए कम करा कर ही दम लिया।
संभव हुआ तो इस रविवार गाँव जाएँगे। सुना है भैया को गाय ने गिरा दिया है और
पैर की हड्डी में चोट आई है। गाँव का चंदू काका ऊँट के दूध से रोज मालिश करता
है। डॉक्टर से दवाई भी खा रहे हैं। एक दो हफ्ते में ठीक हो जाएँगे अब तक खेतों
में गेहूँ की बालियाँ भी आ गईं होगी। उसके दाने सेंककर खाने का मजा ही कुछ और
है। तुम्हारी काकटेल पार्टी से भी ज्यादा मजेदार।
तुम्हें जानकर तो अचरज नहीं होगा लेकिन तुम्हारी माँ को यह जानकर बहुत अचरज
हुआ कि बाजार में लगभग सभी अनाज और उनका पिसा हुआ आटा तैयार मिलता है चमकते
हुए पैकेट में। साबुन, तेल, क्रीम, पाउडर, नेलपॉलिश, टूथपेस्ट, शैंपू, कंडीशनर
जाने क्या-क्या चीजों के खरीदने के लिए कुछ इस तरह का दबाव तैयार कर दिया गया
है कि यदि घर में यह सारी चीजें और वह भी ब्रांडेड नहीं होगी तो त्वचा, बाल,
दाँत वगैरह का तो भारी नुकसान होगा ही सामाजिक हैसियत में उससे ज्यादा गिरावट
नजर आएगी। तुम्हारी माँ चाहती है कि लोग हमें बैकवर्ड न कहें। टेलीविजन पर एक
चिंदीभर कपड़ा लपेटकर एक बीस-बाइस बरस की लड़की हमें समझाती है कि हमें कैसे
नहाना है क्या पहनना और क्या खाना बल्कि पत्नी के साथ कैसे सोना है? तुम्हारी
माँ यही सब टी.वी. पर आने वाले विज्ञापनों को जीवन की जरूरत और अनिवार्यता में
देखती है, समझती है।
रिश्ते, चरित्र और नैतिकता को बाजार ने अपने उपकरण में बदल लिया है। समय में
एक अजीब सी क्रूरता धीरे-धीरे शामिल हो रही है। अहम् या स्वाभिमान अब अभिमान
और गैरजरूरी दंभ में बदल गए हैं और प्रतिष्ठा का उद्दंड प्रतीक भी। इस समय में
दुर्भाग्य का कोई अंत नहीं है। यह चीजें उठकर रिश्तों को डराती है और तोड़ भी
रही है।
बहुत संभव है कि यह चिट्ठी तुम्हें गाँव में रहने वाले एक किसान के डरे हुए
बेटे का निरर्थक बयान लगे। मेरा डर यह भी है कि हम तुम्हारे लिए ऐसा भयावह
संसार छोड़कर जा रहे हैं तो तुम लोग अपनी अगली पीढ़ी के लिए कैसा संसार छोड़कर
जाओगे? इस बाजार ने घर-परिवार और समाज को कई हिस्सों में बाँट दिया है। एक ऐसी
लुभावनी अर्थव्यवस्था तैयार की है जिसमें रिश्तों के छोटे-छोटे लेकिन जरूरी
हिस्सों को गैरजरूरी भावुकता का प्रलाप प्रमाणित करके व्यवहारिक बनने पर जोर
है। तुम्हारी भाषा में कहूँ तो 'प्रैक्टिकल' होना जरूरी है तो उसी क्रम में
तुम्हें जानकारी देना जरूरी है कि बेटी, हमने बैंक के लॉकर का नंबर लकड़ी के
अलमारी के दराज में रखी भूरी डायरी में लिख दिया है। और लॉकर की चाबी भी वहीं
है कभी हम दोनों न रहे तो हमने कुछ ऐसी व्यवस्था कर दी है कि लॉकर में
सम्मिलित खाते में पड़ोस के शर्मा अंकल का नाम भी है। उन्होंने आश्वस्त किया है
कि वे हमारी अस्थियाँ उस लॉकर में रख देंगे। तुम्हें ही तो नॉमिनी बनाया है।
अलमारी की जानकारी पड़ोसी सीमा आंटी को बता दी है लेकिन तुम अपने बच्चों को
मेरी और तुम्हारी माँ की कहानियाँ जरूर सुनाना। वह कहानियाँ नहीं, जो मैंने
लिखी है। मुझे नहीं लगता कि हिंदी में लिखी वे कहानियाँ पढ़ पाएँगे या समझ
पाएँगे पर तुम्हारे घर छोड़ने से पहले के हमारे-तुम्हारे साथ के वे किस्से
उन्हें बताना। तुम्हारी माँ और दादी के गाए वो लोकगीत और लोरियाँ उन्हें
सुनाना जिसे तुमने सैकड़ों बार सुना लेकिन हर बार उसमें पहली बार सुनने जैसी
खुशी हासिल हुई थी। तुम अपने बच्चों को यह भी बताना कि मेरे दादा ने एक लंबी
उम्र तक मोटर नहीं देखी थी। लंबी दूरियाँ या तो घोड़े पर या बैलगाड़ी से तय की
जाती थी। सायकल खरीदना संपन्नता की पहचान थी। जरूरतें बहुत थोड़ी थी और इच्छाएँ
उससे भी कम। तीज-त्यौहारों पर साथ में मनाने पर होने वाली खुशियाँ, वो हँसी,
वो ठहाके बताना। घर में सबके साथ रहने होने की वह मस्ती और किलकारियाँ बताना।
हमारी समझदारी, हमारे हौंसले, हमारी नादानियाँ और कंप्यूटर को जादू की तरह
देखने का वह पहला विस्मय बताना। तुम्हारी स्कूल के किस्से, मेरी बीमारियों के
किस्से जो लगभग एक विस्मय भरे हास्य किस्सों में बदल गए हैं। तुम अपने बच्चों
को सब कुछ बताना। तुम अपने बच्चों की आँखों में एक अकेली निस्वाद, बेरंग नींद
मत ठहरने देना। उसमें जिंदगी के स्वाद और खुशी के रंग भरे सपनों के लिए जगह
बनाना।
मैं इस दुनिया से जाने के बाद कोई सितारा या नक्षत्र नहीं बनना चाहता हूँ।
तमाम धूल-धक्कड़, भीड़, हवा, आँधी, बाढ़, बीमारी और गरीबी... तमाम कठिनाइयों के
बावजूद मैं इसी धरती पर आना चाहूँगा। मैं फिर-फिर इस धरती का हिस्सा होना
चाहता हूँ। मैं नहीं चाहता हूँ कि दूर आकाश में किसी सितारे को दिखाकर तुम उसे
मेरा नाम जोड़कर अपने बच्चों को बहलाओ। मैं फूल, पत्ती, पेड़ या पंछी बनकर
तुम्हारे बीच लौटना चाहूँगा। ताकि तुम्हारे बच्चे या तुम करीब से देख सको,
मुझे छू सको।
बहुत मुमकिन है कि मैं वहीं कहीं कोई चिड़ियाओं के झुंड में कोई एक चिड़िया बनकर
तुम्हारे घर की बालकनी से तुम्हें देखता रहूँ। शायद तुम्हारे आँगन में अमलतास
या कोई और पेड़ बनकर तुम्हारे सिर पर फिर से छाया बनकर धूप से बचाने आ जाऊँ। हो
सकता है सर्दियों में कभी गिरती बर्फ से बचने के लिए कोई अजनबी व्यक्ति-सा
तुम्हारे दरवाजे शरण माँगने आ जाऊँ या शायद बर्फ बनकर ही तुम्हारे घर की छत पर
ढेर बनकर तुम्हारे पैर की छाप अपने सीने पर लेने के लिए तुम्हारी प्रतीक्षा
करूँ। बहती हुई नदी से अँजुरी भरकर पानी लेना, उसकी तरलता में मौजूद रहूँगा।
हरी घास पर टिकी हुई ओस पर चलना, उसी ओस के गीलेपन में तुम्हारे लिए मेरा
प्रेम, वात्सल्य, प्रार्थनाएँ और क्षमा याचना भी मिल जाएँगी।
यह भी मुमकिन है कि मैं कोई पंछी बनकर तुम्हारे आँगन या बालकनी में आकर
बैठूँगा। तुम मुझे पहचान नहीं पाओगी और न मैं तुम्हें। यह अच्छा भी रहेगा।
प्रकृति ने यह चक्र बहुत सोच समझकर बनाया है। हम बदले हुए रिश्तों के साथ
मिलेंगे। मैं तुम्हारे लिए एक सुंदर, कोमल रंगीन चिड़िया रहूँगा या संभवतः
तुम्हारी बेटी मेरे लिए दाना देने वाली एक उदार बच्ची या स्त्री होगी। पुराने
रिश्ते खत्म हो जाने के बाद नए रिश्ते तुम्हें बहुत खुश रखेंगे। मैं तुम्हारी
खुशी के लिए कुछ भी कर सकता हूँ। मैं एक गरीब किसान का बेटा तुम्हारी बेहतर
जिंदगी के लिए जो न कर पाया, उसके लिए मुझे कोसना मत। ठीक उसी तरह मैंने जो भी
थोड़ा बहुत तुम्हारी बेहतरी के लिए किया है उसके लिए कृतज्ञता भी प्रकट मत
करना। यह कोई उस तरह के समाज में प्रचलित वाक्य से पाई संतुष्टि नहीं है
जिसमें कहा जाता है कि बच्चों के लिए जो भी किया वह माँ-बाप का कर्तव्य था।
ऐसी कोई बात नहीं कहना चाहता हूँ। मैंने तो जो भी किया उसमें तुम्हारी निश्छल
किलकारी से अपने लिए खुशी समेटी है। बहुत से दुसाध्य काम जो बरसों मैंने नहीं
किए मैं तुम्हारे लिए करना चाहता हूँ। ईश्वर की संगत। आकाश की ओर हाथ उठाकर
तुम्हारी सलामती और खुशी के लिए याचना।
तुम्हें यह सब बातें शायद भावुकता भरी या फिल्मी लगे या गलत और भ्रामक लेकिन
मेरी कुछ ऐसी विवशता है कि मैं असंख्य प्रार्थनाओं के बावजूद इसे भ्रम नहीं
समझ पाता हूँ। कभी-कभी खुद को दिलासा देने के लिए खुद को गलत या निरर्थक भावुक
प्रमाणित करने के लिए तर्क भी जुटाने की कोशिश करता हूँ। कभी कभी तो खुद मुझे
भी लगता है पर भावुकता अकेले आदमी के जीने का सहारा होती है। आखिरकार जीवन में
सच भी तो यही है। यह बुरी बात है। मेरी तुमसे गुजारिश है कि जब मैं न रहूँ तो
मुझे खुश होकर याद करना। दुखी मत होना। मेरे स्नेह, मेरे दुलार को, मेरे प्रेम
को अपनी ताकत बनाना, कमजोरी नहीं। जितना भी समय हमने साथ जिया, वह हम दोनों की
पूँजी है। रोकर उसे खर्च मत करना। दुख को अपनी पूँजी मत बनाना। अतीत की
स्मृतियों से खुशी का खजाना तैयार करना। स्मृतियाँ जीवन में शक्ति भी देती है
और उन स्मृतियों में बचा हुआ प्रेम दुख सहने का सलीका सिखाता है। मैं नहीं
रहूँगा पर मेरा दुलार, मेरा प्रेम हमेशा बना रहेगा। बेटी, व्यक्ति मरता है तो
वह उसके साथ का समय भी मर जाता है। धीरे-धीरे स्मृतियों का कम होना उस समय का
धीरे-धीरे मरना है। कभी-कभी समय एकाएक मर जाता है लेकिन स्मृतियाँ अपनी अमरता
का बीज उसी मरते समय ओर रिश्तों के प्रेम से खोज लेती है। तुम स्मृतियों से
शक्ति हासिल करना और प्रेम और ममता के बगीचे या जंगल लगाना। तुम देखना उसमें
से खुशियों की महक से तुम्हारा संसार भर जाएगा।
इन सबके बीच तुम्हें एक खबर भी बताना चाहता हूँ। शायद तुम्हें मालूम न हो कि
इधर निमाड़ में या कहें मध्यप्रदेश में गौरैया नाम की चिड़ियों की प्रजाति तेजी
से खत्म हो रही है।
मैंने घर के आँगन में, कमरों में मिट्टी के पात्र लटका कर उसमें थोड़ी-सी घास
बिछा दी है। मैं अपनी खुशी की सीमा तुम्हें बता नहीं सकता कि पहले मिट्टी के
पात्र में एक गौरैया ने अपना घोंसला तैयार किया और बच्चे दिए। अब धीरे-धीरे
पूरे घर ओर आँगन में मिट्टी के पात्रों में घोंसले बन गए हैं और सभी मिट्टी के
पात्र चिड़ियों और उनके बच्चों से आबाद हैं। मैं अब थोड़ी गर्मी सहन करके सो
लेता हूँ लेकिन पंखा नहीं चलाता ताकि उड़ती हुई गौरेया पंखों से टकराकर मर न
जाए।
मैं चिड़ियाओं का संसार बचाना चाहता हूँ और मुझे ऐसा मुमकिन लग रहा है।
- तुम्हारा पापा